Friday, August 26, 2011

दिन ढलते-ढलते ...


दिन ढलते-ढलते ...
  खिचड़ीपुर की रात भी वो रात है जो सभी के दिन का अंत होती है| पर यह रात कभी थकान मे नहीं दिखती, यहाँ के लोग इसे जगाए रखते है| पर सबके बीच ये रात एक डर लिए जरूर जागती है| खिचड़ीपुर मे अंधेरा होते ही रात की रोनक और चहल-पहल दिन से तेज़ हो जाती है| लोग यहां इस दौरान दिन से ज्यादा दिखाई व सुनाई देते है| जो लोग इस दौरान खिचड़ीपुर की रोनाक को ताजा करते हुये महफिल मे मूस्तेद ओर शरीक होते हुये दिखाई पढ़ते है| वे वो लोग होते है जो दिन मे किसी ओर जगह मे शामिल होते है, अपने काम के साथ और अंधेरे के शुरू होने से लेकर अंधेरा हो जाने तक अपनी-अपनी टोलियो मे यहां-वहां हर जगह मे शरीक नज़र आते है| पर ये अंधेरे भरी रात रोज़ाना हर किसी के बीच एक डर छोड़ती हुई जीती है| जो इस जगह को समय के साथ अंधेरा बढ़ते-बढ़ते खाली कर देती है| आखिर मे रह जाते है तो सिर्फ वो जिनकी दुनिया रात से ही शुरू होती है|
 

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