Saturday, December 29, 2012

डिस्पेंसरी एक दिन की...

   वो अपनी छोटी सी दुकान के एक हिस्से में ग्राहको के बीच व्यस्त मालूम पड़ रही थी। ये दुकान उन्होने अपने घर के आगे एक तखत को बिछाते हुये तय कर ली थी और उनका हुल्या ठीक बिलकुल लापता के इश्तिहार में छपे किसी के हुल्ये से बिलकुल मिलता-जुलता था। रंग गेहुआँ, कद दरमयाना, चेहरे पर उनकी उम्र को जाहीर करती हल्की शुरुवाती झुरियान, पैरो मे कपड़े के मटमेले काले जूते, हल्के जामनी रंग के ऊपर लिपटा हुआ मजेंटा रंग का शाल जिससे उन्होने अपने आपको सर तक ढका हुआ था। उनके और मेरे बीच की थोड़ी तांक-झांक के बाद ये कहना नामुमकिन नहीं था की वो भी मुझे अपने काम के दरमियान बीच-बीच में देख रही थी। उनको शायद ये विश्वास था की मैं एक कौने में खड़ा उनको काफी देर से देख रहा था। शायद यही हमारी पहली बातचीत की शुरुवाती सीडी थी। समझ नहीं आता की कैसे उनके और उनके काम के बीच दाखिल होता हुआ मैं इस दौरान बातचीत का एक करवाह तैयार करू, पर मेरे लिए ये बातचीत जरूरी थी, क्योंकि वो मोबाइल डिस्पेन्सरी की वैन हफ्ते में एक दिन उनकी दुकान के कुछ दरमिया पर ही आकार अपने होने का अस्तित्व बनाती है। बस कुछ देर की उस तांक-झांक के बाद मैं उनकी दुकान की तरफ बड़ा पास जाकर देखा तो बच्चो के खाने की तमाम चीजे वहाँ मौजूद थी जो उनकी जेब से बाहर नहीं थी और न जेब पर भारी, जो हमारे बचपन का भी हिस्सा थी। मैंने भी उनसे उन्ही चीजों में से दो-तीन रुपए का सामान लिया और इस सावल के साथ अपनी बातचीत को रखने को मौके तालश ही लिया कि “जो यहाँ डिस्पेन्सरी कि गाड़ी आती है वो कब-कब आती है?, वीरवार के दिन आती है, कल आएगी। अब इसी तरह के दो-तीन सावलों के साथ सावालों का करवाह बातचीत बुनने लगा था।


अगली पोस्ट इससे आगे के लिए तैयार है...

Friday, December 7, 2012

खिचड़ीपुर की गलियो में नजर आने लगी है गर्माहट...


    खिचड़ीपुर की गलियो में अब गर्माहट हर जगह नजर आने लगी हैं। जो महफिले बनती है, बातो के मौके में होती है, यही आस-पास की तस्वीरे अब कुछ इस तरह की तब्दीलियों में शामिल हैं। सभी आते-जाते गरम कपड़ो मे लिपटे नजर आते है जैसे कपड़े शरीर से चिपक गए है और छौड्ने का नाम नहीं ले रहे। रोजाना के कपड़ो पर चड़ा हुआ स्वेटर, पैरो को ठंडक से छुपते जुराब, नंगे हाथ जो पेन्टो को ज़ेबो में पनाह ले चुके है और एक शौल जिसमे अपने आपको लपेटा हुआ है। सभी के सभी पलंग के नीचे रखे पुराने बक्से से बाहर निकाल लिए है। मुंह से सिगरेट के धुए की तरह धुआँ निकालने का खेल बरकरार है, जब भी कई मुह से हवा बाहर छौड़ता तो सिगरेट से निकालने वाले धुए की तरह ऑस मुह से बाहर निकलती, जिसको बच्चो ने अब अपने खेल का हिस्सा बना लिया है। गलियो में रोजाना दाखिल होने वाले फेरि वालो की शिरकत भी बदली सी नजर आ रही है जो इस सर्द मौसम के शुरू होने का एहसास छौड़ती हुई गलियो में घूमते हुये गलियो से निकाल जाती है, अब वो फल-सब्जी, चादर-पर्दे छौड़कर कंबल-रज़ाई, दस्ताने-जुराब, गज़क-मूँगफली बेचते नजर आते है। औरते की महफिले घर के बराँदे छौड़ हाथो मे उन का गोला और सिलाई की डंडी लिए धूप की तलाश में पार्को में जमी नजर आती है। गली की आवाजही दिन होते-होते गलियो में जहा तेज हो जाती है तो वही शाम होते-होते हल्की पढ़ती नजर आती है। रात को ठिठुरते हाथो के साथ दोस्तो की टोलियो को जमाये लड़के यहाँ-वहाँ नजर आते है, शायद इस ठिठुरन को आपसी बातो से बांटने, छुपने या कम करने की कौशिशों में है। घरो या दुकानों के आगे सुलगती अंगेठिया महफिले बनाने में जुट गई है जहां पूरे दिन की गुफ्तगू भी होती है और मस्ती भी। हाथ अंगेठी की गर्माहट को सेकते-सेकते काले पढ़ने लगे है पर इस महफिल और बातों के करवाह में इसे इग्नौरे कर दिया जाता। हर कोई आंग को देर तक जलाने की कौशिश और देर तक बैठने की चाहत में मौका पढ़ते ही जलती आंग में एक लकड़ी और डाल देता।