Friday, January 28, 2011

कदम दर कदम...


कदम दर कदम

    दिल्ली शहर के पूर्व में एक विरान जगह जहाँ दुर दुर तक कोई परिंदा नज़र नही आता था। आज वही जगह खिचड़ीपुर के नाम से जानी जाती हैं। पहले चारो तरफ़ पेड़ पौधे और कांटो वाली बड़ी-बड़ी झाड़ीयां थी। जब हमे यहाँ पर बसाया गया तब हम यहाँ छोटा-सा आशियाना बनाकर रहने लगे और उसी में अपना समान रख दिया। रात को कोसो दुर हल्के से दिये की रोशनी दिखाई देती, वास्तव में वो दिया नही बल्फ जलता था। हमे तो बस यही लगता था कि कोई दिया टीमटीमा रहा हैं।

   आस-पास लोगो ने भी धीरे-धीरे अपने आशियाने बनाने शुरू कर दिये। रात में तो हमे बहुत ड़र लगता था। जानवरो का डर रात भर जगाये रखता था। सभी के घर बनने की शुरवात में थे। कई घरो में तो अभी भी दरवाज़े नही लगे थे। एक दिन अफवाह उठी की भेड़ीया बकरी के बच्चो को उठा के ले गया। लोग जब अपने और अपने आस-पास के बच्चो की देख भाल बहुत किया करते थे।

   दिन तो जैसे-तैसे कट जाता था पर रात कटना मुश्किल होती था। रात होते ही सबको ड़र लगा रहता। शाम के 6-7 बजे से ही लोग अपने घर से बाहर निकलना बन्द कर देते। पहले यहाँ बिजली भी नही थी। लोग तार डालकर बिजल अपने घरो तक लाया करते थे। पानी भी लाईन लगाकर नलो से भरा जाता था। या पानी की तलाश में दुर दुर भटकना पड़ता था। आज हर घर में पानी की टंकिया हैं। उस वक्त पानी कि बहुत अहमियत थी, लेकिन अब तो पानी बहता हैं. तो बहने दो...। खिचड़ीपुर में आज धीरे-धीरे हर चीज़ की सुविधा हो गई हैं। लोग बाहर से आ-आकर खिचड़ीपुर में बसने लगे, अब तो पक्के मकान वो भी दो दो, तीन तीन मंजिल बन गये हैं। आज खिचड़ीपुर इतना मशहुर है की सब यहां के बारे में जानते हैं। पहले यहां एक ही रोड़ पर सभी गाड़ीया चलती थी, काफी काफी समय तक रोड़ पार करने के लिये खड़ होना पढ़ता था।

   बसो की भी सुविधा कोई खास नही थी बस पकड़ने भी काफी आगे जाना पड़ता था। लोग बस के इन्तजार में पसीना -पसीना हो जाते थे। लेकिन अब एक नही काफी जगहो से सड़के निकाल दी हैं। अब भीड़-भाड़ तो होती हैं पर पहले की तरह नही और बस भी जल्दी मिल जाती हैं। अब खिचड़ीपुर ने अपना पुराना चेहरा बदल लिया हैं। आने वाले लोग तो कभी-कभी बदलावो के चलते पहचान ही नही पाते की कहां जाना हैं। 
 
(फरजाना खान)

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