Monday, February 7, 2011

याद हैं कुछ निशानियां...




कहीं भी, कभी भी सड़क पर भी आती-जाती तेज़ रफ़्तार गाड़ियो के बीच में जब कभी 611 और 306 नम्बर की बस नज़र आती हैं तो मुझे खिचड़ीपुर की  याद आ जाती हैं। 

बसों, उस पर छपे नम्बरों और नामों से एक अच्छी खासी तस्वीर उभरती हैं उस जगह की खिचड़ीपुर के बनने और पनपने के बीच इन बसो ने भी अपना खासा रिश्ता अख्तियार किया है. 

पर यह बात देखने लायक है कि आज भी खिचड़ीपुर जाने वाली सभी बसों में से किसी भी बस पर खिचड़ीपुर की नेम प्लेट नही हैं। सभी बसों पर कल्याणपुरी ही लिखा होता है। 

यहाँ के लोगों  को आज भी खिचड़ीपुर जाने के लिए कल्याणपुरी की नेमप्लेट लगी बस पर सवार होकर अपना सफ़र पूरा करना पड़ता हैं।


क्या बसों पर छपी उस जगह की कुछ निशानियां उस जगह की पहचान होती हैं? 

- विक्की कोहली  

पीं....!!!

क्या कहूँ, बचपन की इन चटपटी किस्से-कहानियों के बारे में? कभी कभी तो लगता हैं, मानो मैं उस जगह पर ही नहीं  हूँ, जहां बचपन में अपने साथियों के साथ धमा-चौकड़ी किया करते थे।

बरसात में गली से सीधा सड़क पर आकर ऊपर आकाश को ताकते हुए दोनों  हाथो को फैलाकर ऐसा लगता जैसे हम आज़ाद पक्षी हों। जब मन होता अपने छोटे-बड़े हमजोली के साथ मन मुताबिक खेल खेलते और खूब मस्ती करते।

बाल्मीकि रोड, एक एसा शॉर्टकट रास्ता हैं, जो सभी को भाता हैं, चाहे राहगीर उस पर से कदम-ताल करते हुए निकले या गाड़ी चलाते हुए। इससे अच्छा शार्टकट और कोई नहीं उनके लिए।

यह रास्ता कई कॉलोनियों को भी जोड़ता हैं। फिर ख़ास बात यह हैं कि यहाँ न तो चौराहों पर चमचमाती हरी, लाल और पीली लाईटों का कोई संकेत और न ही किसी दिशा में मुड़ने का कोई निशान। जो जैसे चाहे, यहाँ के रास्ते पर चल सकता है।

फिर जब एक तरफ़ जब हमारे खेलों की कोई सीमा नहीं थी तो, गाड़ियों की कैसे होती। वो भी इस पर आ आज़ाद पक्षी हो लेते। हां बस ये नए आज़ाद पक्षी किसी को हंसाते नही बल्की हादसो दहशक में छोड़ देते हैं।

हादसे तो जैसे हमारे आये दिन के नये खेलो कि तरह बदलते रहते। कभी एक्सीडेन्ट से किसी का खुन बहना, कभी चिखती-चिल्लाती माँ अपने मासुम बच्चे को पुकारा करती। अब तो यही इस सडक का रंग और सांझा पन बन गया हैं।

ना जाने कहां गुम हो गई इस भीड़ में वो शान्त हमारी साँझी जगह। जहाँ के राजा हम साथी हुआ करते थे। वक्त के बदलाव में हमारी साँझी जगह हमारी ना रहकर भीड़-भाड़, डर, झिझक हेरानगी, हादसो, बेचैनी कि बनकर रह गई। बस पीछे छोड़ चली हैं, अपने वो निशान, जिसे देख आज भी हम कहते हैं क्या ये हमारा वही खेल का मैदान हुआ करता था।

मानो या ना मानो एसा लगता हैं जैसे ये सड़क, अपने उपर चल रहे इन बेड़ोल भारी-भरकम वाहनो को देखकर खुब करहाती हो, पर कभी कहती कुछ नही। जैसे पहले शान्त थी वैसे अब भी शान्त रहती हैं। बदलाव अपने में ही खास होते हैं बस फर्क हैं कि हम इन बदलावो को कैसे महसुस करते हैं। बदलाव में कुछ बनता हैं तो बहुत कुछ टुटता भी हैं।

बदलाव हमेशा सबको आज का आयना दिखाने कि कोशिश करता हैं, पर मेरी तरह कुछ लोग इसे देख अपना इतिहास दोहराने पर मजबुर रहते हैं। ये सड़क अपने में ही बड़ती, सिमटती,धीरे-धीरे सरकती, नए-नए अनुठे आकारो को जन्म देती रहती हैं।
      
सड़क सफ़र के बहाने मौका देती हैं, मंज़िल  तक जा कर रास्तों को समझने का...

हर शहर में कभी हमारे आगे तो कभी पीछे सीधी लाईन सी खिसकती हुई दांय-बांया जाते हुए भुल-भुलया की तरह भटकने वाली चौराहो में बदल जाती हैं। हर किस्म के लोग इस पर कदम-ताल करते हुए महज़ एक राहगीर का किरदार निभा रहे हैं।

कहते हैं, हर चीज़, हर आकार, हर किस्से अपने में ही अजब-गज होते हैं। पर जब वो चीज़े समय की करवट के साथ तेज़ी से बदलते हैं तो देखने वाला भी दंग रह जाता हैं। बाते तो हज़ार होती हैं पर अपनी जगह को मन में हर दम बीते लम्हे कि तरह दोहराते हैं। जो बाते आम न रहकर बस हमारे जहन में याद बन समा जाती हैं।

क्या कहूँ, इन बातों को एक बुरा ख्वाब जो बक्त के लपेटे में उलझकर रह गई। सपना जो मुझे दिखता हैं पर किसी दुसरे को नही। या मेरे खुद के ही एसे अनुठे पल जो मुझे उस जगह पर पहुंच कर अक्सर इतिहास दोहराने पर बेबस कर देता हैं।

हमारे खेल का एक एसा मैदान जहां वक्त का कोई नियम नही। खेल की सीमा नही लखिरे थी। हर मौसम हर पल सड़क पर खेलते हुए भागते-दौड़ते हुए कटा। आज वो समय कही गुम हो गया हैं। आज वहां आकर खड़ा होना जैसे अपने में ये महसुस करना कि ये हमारी ही साँझी जगह हुआ करती थी। उस वक्त वो बड़ी ही शान्त स्वभाव की थी जहां हम सारे बीना ड़र झिझक के दांए-बांए।

एक छोर से दूसरे छोर तक आते-जाते खेलते रहते थे। सड़क वो क्या होती है? यह सड़क नही हमारी अपनी जगह हैं। जो हमारे रहने से ही चहकती हैं, रंग में घुलती हैं। हमने सड़क का दुसरा चेहरा ही देखा था पर हमारी जगह को इस भीड़-भाड़, गाड़ियों से भरी सुबह शाम पीं-पीं, टीर्न-टीर्न यातायात जैसे जमावड़े अगर हमारी आँखों के सामने और इनके तेज़ अलग-अलग किसम की आवाजें कानों में न पड़ती तो हम शायद सड़क शब्द से ही अन्जान रह जाते।
- शालू 
कल्ब

Wednesday, February 2, 2011

पार्क...

   अक्सर हम इस पार्क में कुछ ना कुछ खेला करते हैं। इस पार्क को बने तीस साल हो गये हैं। पार्क के चारो और से निकलने वाले लोग जब इस पार्क को देखते हैं, तो उनहे बहुत बुरा लगता हैं। लेकिन जब उस पार्क में बच्चो की आवाज़े सुनाई देती हैं तो लोग उस पार्क की तरफ तरफ मुड़-मुड़ कर देखा करते हैं। इस पार्क के इरद-गिरद जो ओर छोटे-छोटे पार्क हैं उन सब में से हमारे माहौल्ले का ही पार्क सबसे बड़ा हैं। यह बहुत ही हरा-भरा पार्क हैं, और इसकी खासियत ये है कि यह औरतो के लिये आपसी बातचीत करने और कुछ समय साथ बिताने कि एक जगह है, और आदमियों के लिये भी बैठने कि जगह बन गई हैं।



    पर औरते घर से ज्यादा बाहर नही आती हैं क्योंकि उन्हे अपने काम से ही फुरसत नही मिलती हैं तो वो बात क्या करे। पर हमेशा गर्मीयों में वो पार्क की रेलिंग पर कपड़े सुखाती नज़र आ जाती हैं, इस बहाने इस बीच उनकी आपस में बाते भी हो जाती हैं। उनको कहते सुना हैं कि ये पार्क बना है तो कपड़े यहाँ आराम से सुख जाते है और बच्चो को भी घर के पास खेलने कि जगह मिल जाती हैं, और हमे बाते करने का मौका भी तो यहा मिल जाता है। सर्दियो में भी वो यहा अपने शरीर को धुप की गरमाहट देती हुई यहा गप्पे लड़ाती नजर आती हैं।



    कभी कभी तो वे सभी वही पर बैठ के खाना भी खा लेती हैं। आदमी तो गर्मी हो या सर्दी वही बैठे नज़र आते हैं, गर्मी में धुप से बचने के लिये पेड़ की छाव में बैठे दिखाई देते है तो सर्दी में धुप कि किरणो को खुली हवा कि तरह अपने शरीर पर गिरने देते हैं। उनहे तो कोई मना भी नही करता की वो अपने अपने घरो से ज्यादा समय पार्क में गुजारते हैं।



    लेकिन देखा हैं कि मौसम के अनुसार पार्क के अन्दर के पेड़ भी अपना रूप बदल लेते हैं। जैसे सावन के महीने में बारिश होने पर छोटी-छोटी, नन्ही-नन्ही घास उगने लग जाती हैं। फरवरी के महीने में पेड़ अंगडाईया लेता हुआ सारे पत्ते झाड़ देता हैं, इसके बाद नए पत्ते आने लगते हैं। पहले इस पार्क में एक बिजली घर भी था। जिससे पानी का एक पाईप जुड़ा हुआ था, जहां से पेड़ो में पानी दिया जाता था। कभी कभी लाईट ना होने पर या पानी ना आने पर लोग पीने का पानी भी यही से भरा करते हैं। और इससे भी बातो का एक छोटा सा माहौल बनना चालु हो जाता था।



    सावन के महीने में तो नज़ारा बहुत रंगीन हो जाता हैं। बच्चे पेड़ो पर रस्सी से झुले डालकर दिन भर झुलते हैं। 5-6 साल पहले वो बिजली घर भी तोड़ दिया गया और उसकी जगह दुसरा नल लगा दिया। अब पार्क में टेन्ट भी लगने लगे हैं। जिन पेड़ो की ड़ालियो पर कभी सावन पर हमारे झुले हुआ करते थे वो ड़ालिया भी गल गई हैं। अगर अब हम वहा अपना झुला डालते भी हैं तो ड़ालिया भी टुट-टुट जाती हैं। एक समय इस पार्क कि मरमत के लिये सरकारी आर्डर भी आया कुछ लोग जो पार्क बनाने आये थे, उन लोगो ने पहले अपने रहने के लिये छोटी-छोटी झुग्गियाँ डाल ली। और पीर पार्क के मरमत के काम में लग गये। एक साल के अन्दर पार्क को बना दिया, चारो तरफ पटरिया बनाई गई, कुछ बेन्च बैठने के लिये बनाये गये, रेलिंग और पार्क कि दिवारो को भी ठिक किया गया। पार्क का काम हो जाने के बाद वो लोग वहा से चले गये। इसके बाद लोग यही पर अपने घर की शादियों के, जन्मदिन के और पार्टी के टेन्ट यहां लगाने लगे, तो सरकार ने इस पार्क में समान लाने ले जाने के लिये एक बड़ा गेट भी लगवा दिया। पर जिस समय वो गेट बनना चालु हुआ था तो शादियों का समय था। हमेशा ही यहां टेन्ट लगने की दिक्कत से गेट बनाने का काम कुछ समय के लिये रुक गया था पर आज आखिर वो गेट बनकर तैयार हो ही गया।
                                                                                                                - सिमरन
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