Monday, February 7, 2011

पीं....!!!

क्या कहूँ, बचपन की इन चटपटी किस्से-कहानियों के बारे में? कभी कभी तो लगता हैं, मानो मैं उस जगह पर ही नहीं  हूँ, जहां बचपन में अपने साथियों के साथ धमा-चौकड़ी किया करते थे।

बरसात में गली से सीधा सड़क पर आकर ऊपर आकाश को ताकते हुए दोनों  हाथो को फैलाकर ऐसा लगता जैसे हम आज़ाद पक्षी हों। जब मन होता अपने छोटे-बड़े हमजोली के साथ मन मुताबिक खेल खेलते और खूब मस्ती करते।

बाल्मीकि रोड, एक एसा शॉर्टकट रास्ता हैं, जो सभी को भाता हैं, चाहे राहगीर उस पर से कदम-ताल करते हुए निकले या गाड़ी चलाते हुए। इससे अच्छा शार्टकट और कोई नहीं उनके लिए।

यह रास्ता कई कॉलोनियों को भी जोड़ता हैं। फिर ख़ास बात यह हैं कि यहाँ न तो चौराहों पर चमचमाती हरी, लाल और पीली लाईटों का कोई संकेत और न ही किसी दिशा में मुड़ने का कोई निशान। जो जैसे चाहे, यहाँ के रास्ते पर चल सकता है।

फिर जब एक तरफ़ जब हमारे खेलों की कोई सीमा नहीं थी तो, गाड़ियों की कैसे होती। वो भी इस पर आ आज़ाद पक्षी हो लेते। हां बस ये नए आज़ाद पक्षी किसी को हंसाते नही बल्की हादसो दहशक में छोड़ देते हैं।

हादसे तो जैसे हमारे आये दिन के नये खेलो कि तरह बदलते रहते। कभी एक्सीडेन्ट से किसी का खुन बहना, कभी चिखती-चिल्लाती माँ अपने मासुम बच्चे को पुकारा करती। अब तो यही इस सडक का रंग और सांझा पन बन गया हैं।

ना जाने कहां गुम हो गई इस भीड़ में वो शान्त हमारी साँझी जगह। जहाँ के राजा हम साथी हुआ करते थे। वक्त के बदलाव में हमारी साँझी जगह हमारी ना रहकर भीड़-भाड़, डर, झिझक हेरानगी, हादसो, बेचैनी कि बनकर रह गई। बस पीछे छोड़ चली हैं, अपने वो निशान, जिसे देख आज भी हम कहते हैं क्या ये हमारा वही खेल का मैदान हुआ करता था।

मानो या ना मानो एसा लगता हैं जैसे ये सड़क, अपने उपर चल रहे इन बेड़ोल भारी-भरकम वाहनो को देखकर खुब करहाती हो, पर कभी कहती कुछ नही। जैसे पहले शान्त थी वैसे अब भी शान्त रहती हैं। बदलाव अपने में ही खास होते हैं बस फर्क हैं कि हम इन बदलावो को कैसे महसुस करते हैं। बदलाव में कुछ बनता हैं तो बहुत कुछ टुटता भी हैं।

बदलाव हमेशा सबको आज का आयना दिखाने कि कोशिश करता हैं, पर मेरी तरह कुछ लोग इसे देख अपना इतिहास दोहराने पर मजबुर रहते हैं। ये सड़क अपने में ही बड़ती, सिमटती,धीरे-धीरे सरकती, नए-नए अनुठे आकारो को जन्म देती रहती हैं।
      
सड़क सफ़र के बहाने मौका देती हैं, मंज़िल  तक जा कर रास्तों को समझने का...

हर शहर में कभी हमारे आगे तो कभी पीछे सीधी लाईन सी खिसकती हुई दांय-बांया जाते हुए भुल-भुलया की तरह भटकने वाली चौराहो में बदल जाती हैं। हर किस्म के लोग इस पर कदम-ताल करते हुए महज़ एक राहगीर का किरदार निभा रहे हैं।

कहते हैं, हर चीज़, हर आकार, हर किस्से अपने में ही अजब-गज होते हैं। पर जब वो चीज़े समय की करवट के साथ तेज़ी से बदलते हैं तो देखने वाला भी दंग रह जाता हैं। बाते तो हज़ार होती हैं पर अपनी जगह को मन में हर दम बीते लम्हे कि तरह दोहराते हैं। जो बाते आम न रहकर बस हमारे जहन में याद बन समा जाती हैं।

क्या कहूँ, इन बातों को एक बुरा ख्वाब जो बक्त के लपेटे में उलझकर रह गई। सपना जो मुझे दिखता हैं पर किसी दुसरे को नही। या मेरे खुद के ही एसे अनुठे पल जो मुझे उस जगह पर पहुंच कर अक्सर इतिहास दोहराने पर बेबस कर देता हैं।

हमारे खेल का एक एसा मैदान जहां वक्त का कोई नियम नही। खेल की सीमा नही लखिरे थी। हर मौसम हर पल सड़क पर खेलते हुए भागते-दौड़ते हुए कटा। आज वो समय कही गुम हो गया हैं। आज वहां आकर खड़ा होना जैसे अपने में ये महसुस करना कि ये हमारी ही साँझी जगह हुआ करती थी। उस वक्त वो बड़ी ही शान्त स्वभाव की थी जहां हम सारे बीना ड़र झिझक के दांए-बांए।

एक छोर से दूसरे छोर तक आते-जाते खेलते रहते थे। सड़क वो क्या होती है? यह सड़क नही हमारी अपनी जगह हैं। जो हमारे रहने से ही चहकती हैं, रंग में घुलती हैं। हमने सड़क का दुसरा चेहरा ही देखा था पर हमारी जगह को इस भीड़-भाड़, गाड़ियों से भरी सुबह शाम पीं-पीं, टीर्न-टीर्न यातायात जैसे जमावड़े अगर हमारी आँखों के सामने और इनके तेज़ अलग-अलग किसम की आवाजें कानों में न पड़ती तो हम शायद सड़क शब्द से ही अन्जान रह जाते।
- शालू 
कल्ब

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