तेज से किसी माहौल में घुसपैठ कऱती ये आवाजें जैसे आपको अपने काम के बीच से अपनी तरफ खींच ले जाती हैं। बिखरे हुए धुंधले अक्स का रूप लिए ये जैसे अपने बीच से अपनी ज़रूरतों के चुनाव को खोल देती हैं। चटाचट कानों में पड़ती इन ढेरों आवाज़ों को पता नहीं अनुसुना कर दिया जाता है या इनमें कुछ तलाश रहती हैं।
इस जगह लगता हैं लोग आँखों से कम कानों से ज़्यादा भांपते हैं। फिर इस भांपने के बाद किसी चुनाव में होते हैं। इस शोर में हर कोई अपने कानों को तेज किए हुए बस तलाशता रहता है और चुनाव हमेशा बचत की परख के परवान ही चढ़ता है। इतने शोर में लोग या तो खुद को ही सुन पाते हैं या लगातार पढ़ने वाली इन बोलियों को।
इनके पास, इनके बीच क्या चल रहा हैं- ये अभी बेख़बर हैं। इस जगह की ये भीड़ की शक्ल कुछ तो अख्तियार करती है जैसे हफ्ते का इंतज़ार, किसी की ज़रूरत, घर से बाहर निकलने का मौका या कुछ और शायद। शायद और भी बहुत कुछ। हम तो जैसे बस इस चहलकदमी में अपना वजूद लिए यूँ ही शामिल हो जाते हैं बाज़ार को मापने और आँकने के लिए।
ये सड़क हर हफ़्ते इन सभी चीज़ों के साथ रंगीन और रंगीन होती नज़र आती है। इन सातों दिनों के दरमियां इस दिन के सजावट तो तय हैं जो लोगों के शामिल होने और मौजूदगी पर खिलती और चहकती हैं। ये चहक भी लोगों की ड़िमांड पर होती है जैसे लगता है एक दिन कोई महफिल आवाज़ों से सजाई जाती है।
इस जगह में कहे गए हर शब्द के अपने-अपने मायने होते हैं, जहां दोनों हिस्सों की शुरुआत बाज़ार की छवि को हल्का करते हुए घर की चौखट तक लौट आती हैं।
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